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आम का पेड़ / शशि सहगल
Kavita Kosh से
बात तब की है
जब हम छोटे थे
खाना-पीना, मौज मनाना
यही काम था।
खेल-खेल में एक दिन
आम चूसकर
गुठली दबा दी आँगन में
फूट पड़ा पौधा
और बड़ा होने लगा संग-संग हमारे।
देखती हूँ आज
फैल गया है वह पूरे आँगन में
पड़ोस का छज्जा भी
हथिया लिया हे उसने
पर, बुरा नहीं माना किसी ने।
फल और छाया
देता है पेड़
हरियाली से भरपूर
बच्चे की किलकारी-सा अबोध
समेट लेता है
अपने पत्तों में बच्चों को।
भोर में टपके आम
बिखरे होते हैं आँगन में
बच्चों की छीना-झपटी को
मुग्ध होकर देखता है पेड़।
पर यह क्या?
आज पेड़ ने फल नहीं टपकाए?
यह कैसा सन्नाटा है?
जड़ है हर पत्ता
और आँगन में यह खून के धब्बे!
सिहर उठती हूँ मैं
छूकर देखती हूँ पेड़ को
कहीं, वह आदमी तो नहीं बन गया!