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आरस सोँ रस सोँ पदमाकर / पद्माकर

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आरस सोँ रस सोँ पदमाकर चौँकि परै चख चुँबन के किये ।
पीक भरी पलकैँ झलकैँ अलकैँ छवि छूटि छटा लिये ।
सो मुख भाखि सकै अब को रिसकै कसकै मसकैँ छतियां छिये ।
राति की जागी प्रभात उठी अँगरात जँभात लजात लगी हिये ।

पद्माकर का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।