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आवाज़ें / बैर्तोल्त ब्रेष्त / उज्ज्वल भट्टाचार्य

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शरद के आख़िरी दिनों में
घोंसले बनाते हैं रुपहले पीपलों में
कौओं के विशाल झुण्ड

लेकिन
गरमीभर सुनता हूँ मैं
क्योंकि इस इलाके में
पंछी नहीं होते
सिर्फ़ इन्सानों की आवाज़ें गूँजती हुई ।

मैं सन्तुष्ट हूँ !

1953

मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य