आवाज़ / मुकेश मानस
कहीं किसी बाग में
या मुहल्ले के पार्क में
हम देखते हैं किसी फूल का खिलना
और खुश हो जाते हैं अनायास
साँसों में भर जाती है उसकी गंध
हमारे मन को छू जाते हैं उसके रंग
और ऐसे ही किसी क्षण
हमें ये लगता है
कि फूल हमसे कुछ कह रहा है
मगर देख नहीं पाते
हम अपने भीतर
लगातार झरते जाना
किसी फूल का
मह्सूस नहीं होती हमें उसकी उदासी
सुनाई नही देती उसकी करूण पुकार
तारकोल और पत्थरों के
इस शहर में रहते हुए
बाहर के शोर और धूल के
हम इतने आदी हो जाते हैं
कि सुन नहीं पाते
अपने भीतर
किसी फूल के टूटने
और बिखरते जाने की आवाज़
बरसों बाद
हमें याद आती है
अपने भीतर के उस फूल की
मगर तब फूल नहीं रहता वहाँ
न रह जाती है उसकी गंध
और न उसके रंग
और न रह जाती है
उसकी आवाज़
2002
<poem.