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आशा / ओम पुरोहित ‘कागद’
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अकाल में
जलती धरती
बीजों का क्या करे ?
बेचारे बीज डरते हैं
अग्नितप्त धरा से
कोई छिडक न दे
कमजोर पडती आशा
पुनर्स्थापनार्थ ।
मरुस्थलवासी को डर
बीज और धरती के
प्राचीन रिस्ते के टूटने का ।
डर ही बाकी है अभी
धरती पर
जो उत्पन्न करता है
जीने की आशा ।
हे विधाता !
आशा रखना
आशा ही रखेगी
जगत में मानवता !
अनुवाद-अंकिता पुरोहित "कागदांश"