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आहों में उठते जो / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
आहों में उठते जो मेरे छन्द रह-रह
लोग कहते गीत, कोई तो गजल हैं।
पा गए जो राग-रागिनी-सुर तुम्हारे
बज उठेंगे बाँसुरी-से शब्द सारे
एक ऐसी गूंज-गूंजेगी कि जैसे
विकल होकर दूर से कोई पुकारे
प्रेम की आराधना में गीत मेरे
मानसर में खिले शतदल के कमल हैं।
साँझ की सँझवाती ले कोई नवेली
द्वार पर गुमसुम खड़ी एकदम पहेली
हो प्रतीक्षा में प्रिये की शान्त अपलक
सबकी आँखों से बचा-बच कर अकेली
रात भर उसके ही संग थे गीत मेरे
इसलिए ये भाव-अक्षर सब सजल हैं।
जो नहीं आँसू से भीगे शब्द होते
वे रुलायेंगे भला क्या, जो न रोते
कुछ कली, कुछ फूल ही इससे खिलेंगे
जा रहा हूँ गीत में पीड़ा सँजोते
तन मेरा गोकुल की गलियाँ-गाँव है
गीत मेरे गोपियों के नयन-जल हैं।