इंतिज़ार / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
हर इक कली मलूल है हर एक गुल उदास है
फ़ज़ा बुझी बुझी सी है चमन के दिल में यास है
घटा घटा में बिजलियाँ सबा भी बेक़रार है
जली जली सी पत्तियां उदास सब्ज़ा-ज़ार है
उजड़ गये हैं रास्ते फ़लक पे छा गया है ग़म
ज़मीन सोगवार है खुशी को खा गया है ग़म
शजर थके थके से हैं थकी थकी बहार है
हर एक शय को इश्क़ में किसी का इंतिज़ार है
है इंतिज़ार आपका अलम है और यास है
मुझे भी खा गया है ग़म मेरी भी दिल उदास है
कभी मिले थे हम यहां कभी फ़ज़ा में रंग था
घटा घटा में प्यार था यहां खुशी का ढंग था
कभी खिले थे गुल यहां निखार था
कभी यहां बहार थी समां भी खुशगवार था
शजर शजर में रंग था कली कली में ताज़गी
खिली थी फूल की तरह हर एक शय में ज़िन्दगी
ये ज़िन्दगी मेरे लिए अब ऐसा एक बार है
कि तेरे साथ साथ अब क़ज़ा का इंतिज़ार है।