इकतीस की उम्र में / निशांत
आकाश इतनी बड़ी शुभकामनाएँ
और पृथ्वी इतना बड़ा प्यार
मुझे मालूम है, दोस्त!
इकतीस की उम्र में
नौकरी पाने की
हताशा और ऊब से ऊपर उठने का आनंद
' इतना पढ़ के क्या किए ! '
जैसे जुमलों से आहत हुए शरीर का घाव
कितनी आसानी से भर जाता है
एक नौकरी के मलहम से
माँ ख़ुश होती है
चौड़ा हो जाता है पिता का सीना
भाई की आँखों में आ जाती है चमक
प्रेमिका की आँखों में बैठी कोमलता
उद्दाम साँसों में तब्दील हो जाती है
बहन गर्व से बतलाती है सहेलियों के बीच
ये हैं, मेरे बड़े भाई साहब
जो ' फलाँ ' जगह ' फलाँ ' होकर गए हैं...
एक नौकरी
और कितना-कितना आराम
घर तो घर
मोहल्ले से होकर भगवान् तक की आँखों में
आ जाती है दीप्ति
आत्मा में शान्ति
और क्या ... क्या ...
पढ़ाई पर छिड़ी सारी बहस
चली जाती है चूल्हे-भाड़ में
और कोई कारोबार करने की
धीमी आँच में पकती हुई विचारधारा
तब्दील हो जाती है एक शानदार मुहावरे में
' भगवान के घर देर है अंधेर नहीं '
याद आती है तुम्हारी बहस
नौकरी, बेरोज़गारी, प्रेम, शिक्षा, आरक्षण, जनसंख्या
फ़िल्म पत्रिकाएँ, कविता-कहानी-उपन्यास, पुरस्कार
और न जाने कितने मुद्दों पर
आँखें लाल किए और मुट्ठी ताने
दुनिया को बदल डालने के स्वप्न के साथ
' जला दो - मिटा दो ' की भाव-भंगिमा के साथ
' एक धक्का और देते ' के नारों के साथ
शायद हम एम.ए. में थे उन दिनों
देश के सबसे उत्तर-आधुनिक विश्वविद्यालय में
' लाल सलाम-लाल सलाम' और 'हल्ला बोल-हल्ला बोल' कहते हुए
उम्र कम थी
और नहीं जानते थे
इकतीस की उम्र में नौकरी पाने का सुख
आकाश इतनी बड़ी शुभकामनाएँ
और पृथ्वी इतना बड़ा प्यार
आज पहली बार दोस्त !
आज पहली बार ...