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इज़्ज़तपुरम्-90 / डी. एम. मिश्र

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हे ईश्वर
कशमकश से उबार

डूबकर मरूँ तो
डर है
सारे समन्दर में
‘एड्स’ हो घुल जाये

कटकर मरूँ तो
डर है
सम्पूण जंगल में
‘एड्स’ फैल जाये

जलकर मरूँ तो
डर है
पूरे वातावरण में
‘एड्स’-‘एड्स’ हो जाये
जो मेरी आत्मा
कभी नहीं चाहती
कोई और निर्दोष
‘भुक्तभेागी’ हो क्यों?