भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इतना / जय गोस्वामी / रामशंकर द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इतनी याद है तुम्हें मेरी ?

स्मृति का बोझ
ढोती आई हो
आनन्द से इतनी दूर पथ पर ।

तेज़ धूप पर हाथ रखकर
तुम्हीं को कहता हूँ शरत् —
तुम्हीं तो मेरी आश्विन हो ।

तुम्हारे मुख से
छोटी-सी बात सुन
आज मेरा सर्वस्व हो गया है रँगीन —

फिर भी
सोच नहीं पा रहा हूँ, कैसे
तुम मुझे
इतना याद किए हुए हो ?

इतने दिन तक ?

मूल बाँगला भाषा से अनुवाद : रामशंकर द्विवेदी