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इतनी सी रौशनी / अशोक कुमार पाण्डेय
Kavita Kosh से
रात में ढलती जा रही उस उमस भरी शाम
कुछ नहीं माँगा उस आठेक साल के बच्चे ने
टूटते हुए तारे को देखकर
बस कुतरते हुए चाकलेट चुपचाप देखता रहा
मन्नतों में जुड़े तमाम हाथों को
पता नहीं किसी और ने देखा भी या नहीं
कि ठीक जिस क्षण टूटा वह तारा
वह मुस्कराया था
मेरी पुरानी आँखों ने पढ़ा कुछ उसमें
पता नहीं कहा कि अनकहा
पर मुस्कराईं वे भी उसके साथ
मानी जो भी हो
मानी हो न हो
ख़ूबसूरत होती ही है किसी बच्चे की मुसकराहट
किसी भी इन्द्रधनुष से ज़्यादा रंग होते हैं उसमें
किसी भी टूटते तारे से कहीं ज़्यादा उम्मीदें
अँधेरे में डूबी उस कस्बाई शाम
उस सस्ते से होटल की छतपर
फिल्मी गानों और मानस के बेसुरे पाठ के बीच
बस इतनी सी रौशनी थी...