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इतिहास / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
विश्व अस्थिर, प्रति चरण पर
बन रहा है नित्य नव इतिहास !
क्षण गिराते जा रहे हैं,
क्षण मिटाते जा रहे हैं,
आज देशों को धरा से,
युद्ध की गढ़-कन्दरा से,
ऊर्धव अविरत राष्ट्र अगणित,
ले रहे कुछ क्षीण अंतिम साँस !
:
कल प्रगति के जो शिखर पर
आज निर्बल शक्ति खोकर
पद-दलित हो, रजकणों-सम
हैं धराशायी, तिमिर-भ्रम,
खिल रहा उजड़े चमन में
भव्य आशा का कहीं मधुमास !
:
नीतियाँ औ’ वाद कितने,
भिन्न जग के नाद कितने,
दे रही प्रतिपल सुनायी
आज ज़ोरों से मनाही,
बढ़ रही मन में निरन्तर
मनुज के आ विश्व-भक्षक प्यास !