इन्तजार: चार कविताएँ / कौशल किशोर
एक
सबको है इन्तजार
तानाशाह को है युद्ध का इन्तजार
जनता को है मुक्ति का इन्तजार
सवाल एक सा है दोनो तरफ
कि कैसे खत्म हो
यह इन्तजार ?
दो
हम इतिहास के कैसे लोग हैं
जिनका खत्म नहीं होता इन्तजार
जब कि हमारी ही बच्ची
दवा के इन्तजार में
खत्म हो जाती है
सिर्फ चौबीस घंटे के भीतर ।
तीन
हमारा ही रंग
उतर रहा है
और हम ही हैं
जो कर रहे हैं इन्तजार
कि कोई तो आयेगा उद्धारक
कोई तो करेगा शुरुआत
कोई तो बांझ धरती को
बनायेगा रजस्वला
किसी से तो होगा वह सब कुछ
जिसका हम कर रहे हैं इन्तजार
अपनी सुविधाओं की चादर के भीतर से झांकते
बच्चों को पढाते
मन को गुदगुदाते
इन्द्रधनुषी सपने बुनते
पत्नी को प्यार करते
फिर इन सब पर गरम होते
झुंझलाते
दूसरों को कोसते
सारी दुनिया की
ऐसी.तैसी करने के बारे में सोचते
हम कर रहे हैं
इन्तजार...
चार
कहती हो तुम
मैं प्रेम नहीं करता
जिंदगी हो तुम
कैसे जा सकता हूं दूर
अपनी जिंदगी से
यह दिल जो धड़कता है
उसकी प्राणवायु हो तुम
मेरे अंदर भी जल तरंगें उठती हैं
हवाएं लहराती हैं
पेड़ पौधे झूला झूलते हैं
उनके आलिंगन में
अपना ही अक्स मौजूद होता है
चाहता हूँ
तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले
घंटों बैठूं
बातें करूँ
बाँट लूँ हँसी खुशी
सारा दुख दर्द
मैं तुम्हारे बालों को
हौले हौले सहलाऊँ
तुम्हारे हाथों का प्यारा स्पंदन
अपने रोएदार सीने पर
महसूस करूँ
बस इंतजार है इस दिन का
कैसा है यह इंतजार
कि खत्म ही नहीं होता
कैसे खत्म हो यह इंतजार
बस इसी का है इंतजार...