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इन्द्र से / बसन्तजीत सिंह हरचंद
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दल व दल
बढ रहे बादल
इधर से बढ रहे बादल,
उधर से बढ रहे बादल;
चतुर्दिक भर रहे बादल .
घटाटोप घन अंधियारे की बाढ़ ,बहे बादल ,
उमड़- घुमड़ते मद गर्वित चिंघाड़ रहे बादल।
निम्नग नद- नालों से नव शक्ति हथिया कर ,
अहंकार के छाये भीम पहाड़ ,बहे बादल ;
गरज - गरज कर दलित कलेजे फाड़ रहे बादल .
इंद्र ! तुम्हारे बादल मुसलधार बरस कर ,
बहा नहीं सकते इस विद्रोही बस्ती को .
गोवर्धन पर्वत धारण करने वाले को
जन्म अभी देने की शुभ क्षमता इसमें है .
चाहे तेरे कितने भी
बढ़ते रहें
दल - बादल
दल व दल
दल बदल
(अग्निजा ,१९८०)