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इश्क-ए-मुक़द्दस / ”काज़िम” जरवली
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परिंदा अपने ही पर काटता है,
इन आँखों को ये मंज़र काटता है ।
सड़क पर जी नहीं लगता है मेरा,
मैं घर जाता हूँ तो घर काटता है ।
वो दीवाना बहुत होश्यार निकला,
वो आईने से पत्थर काटता है ।
मुझे काँटों पा है सोने की आदत,
मुझे फूलों का बिस्तर काटता है ।
जवाँ होता है जब इश्क-ए-मुक़द्दस,
रगे गर्दन से खंजर काटता है ।
अबस बदनाम हो जाते हैं दरिया,
किनारे तो समंदर काटता है ।
है "काज़िम" कौन जो आबे रवां पर,
लहू से प्यास लिख कर काटता है ।। -- काज़िम जरवली