इहँवे / कुमार वीरेन्द्र
बाबा जिस
पेड़वा को गले लगाते, ठहाके लगा
बोलते-बतियाते; आँखें ओदा करते कान लगाए सुनते; कबहुँ हाथ जोड़ माफ़ी भी माँगते
उसी की छाया में, एक बेरी जानना चाहा तो बताया, 'का कहें रे मरदे, ई पेड़वा थोड़े, एह
में बसे परान; ई बूझ लो, जब ले ई पेड़वा तब ले हमर जिनिगी'; और एक
सुबह बाबा जब सोए रह गए, सब रोने लगे, मैं भी रोने लगा
तबहुँ काहे तो मन मान नाहीं रहा था — साँचो दूर
हो गए बाबा; इधर मजिल गई उधर
पेड़वा से, भहरात जा
लगा गले
तब जैसे बाबा ने
कान में गँवे कहा हो, 'अरे चुपा लगा, मरदे
साँचो थोड़े दूर हुआ हूँ, जीयत इहँवे त जीयत रे मरदे'; फिर रोज़ जाता, देर तक बैठा रहता
जड़तर; इयाद आता कान्ह प बैठना, अँगुरी धरे खेत-बधार घूमना, सन्न से लगता; झँझोड़ते
मन इहे सोचता — नाहीं, बाबा साँचो कतहुँ नाहीं गए; तभी तो जितना भी पइसा
खरिहान में मिली 'अँजुरी' के बेचने से मिलता, माई-आजी किसी
को नहीं देता, पेड़वा के जड़तर लकड़ी से कोन गाड़
देता; 'काग-दुरुस' में जो कंचे जीतता ऊ
भी उहँवे तोप देता; जताते
'देखो बाबा
तुमहिं को मालूम
तोहार गोड़वा-तरे का-का लुकाया है, सुत
मत जाना रखवारी करना, ठीक है न...'; और भरोसा कबहुँ नाहीं टूटा; एक दिन गुरदेल बनाया
तय किया, जो बन्दरवा हैं, मार के नाक-मुँह राँग दूँगा; बगीचे में, जहँवा रहना, रहें, ई पेड़वा पर
न रहें, डाड़ क्या पतइयाँ भी टूटेंगी, बाबा को कितना दरद होगा; एक बेर पेड़वा के
खोंड़र में कुछ सुग्गों को जाते-आते देखा, ताकता रह गया — अरे, कबसे
कवनो बात नाहीं, चेता दिया, 'भाई लोगन, रहो बाक़ी सुन
लो, बाबा के दिल में तुम सब नाहीं, मैं रहता
हूँ मैं'; और बोलते, ऐसे बोलने
लगे सुग्गे, जैसे कह
रहे हों
'ठीक है, भाई
ठीके है'; लेकिन एक साल आँधी में
गिर गया पेड़वा; भोरे देखा, पाथर हो गया, सोच नहीं पा रहा था — बस, पकड़े बार-बार पूछ
रहा था, 'बोलो, बोलो न, अब किसे बाबा कहूँगा...'; जब कोई जवाब नहीं, जड़तर से अपने
पइसे, कंचे निकाल, बगली में रख लिए; बैठ भोकार पारने लगा, कब तलक
भीगता रहा, पता नहीं; अब बाबा साँचो नहीं थे, लकड़हारे ले जा
चुके थे; तब भी रोज़, बगीचे में जाता, ख़ाली जगहिया
देखता रहता; जड़ खोदने से जो गड़हा बैठा
रहता उसमें, घर जाने का मन
ही नहीं करता कि
बाबा
घर में थोड़े, इहँवे
इहँवे तो रहते थे !