ईश्वर / अनिता मंडा
ईश्वर काँप रहा है
गुस्से से या दयनीयता से
पता नहीं
उसके काँपते हाथ से छूट रही है
विपदा की गठरी
बाढ़ सूखा सुनामी
अपनी सोच को
बोनसाई बना
उगा रहा है आदमी
गमलों में
ईश्वर खुश था
जब उसे खेत में दो तिरछी ईंटों तले
सिंहासन मिला
हवा पानी धूप सब था पास
पके गेहूँ की बालियों जैसा ही था
शायद उसका रंग
परिश्रम के स्वेद सी
उसकी ख़ुश्बू
पेट भरा आदमी का जब
ईश्वर को मिली चारदीवारी
कपाटों में बंद कर बैठा दिया
सोने के मुकुट पहना कर
ओर ईश्वर दब गया विस्मृति के गर्त में
हैरान था बहुत अपनी कृति के कर्मों पर
वो ईश्वर को भेंट चढ़ाता
और पहाड़ सपाट करता
ईश्वर से मन्नौतियाँ माँगता
नदियाँ बाँधता
इस तरह ईश्वर छला गया
अपनी ही सर्वोत्कृष्ट कृति से
स्थापित हुआ विसर्जित भी
पर ईश्वर अभी हारा नहीं है
उसे यकीन है
उसका सृजन
व्यर्थ नहीं है
वह हारेगा नहीं।