ईश्वर होने का अर्थ... / अनुपमा तिवाड़ी
ईशनिंदा शब्द ही जैसे अपराधी शब्द है.
ईश, विनम्र होने की तो हम इंसानों से भी आशा की जाती है
धैर्य का पाठ तो हमें भी सिखाया जाता है
सहनशीलता की तो हमसे भी अपेक्षा की जाती है
पर ईश, क्या तुममें,
हम जितनी भी विनम्रता नहीं ?
हम जितना भी धैर्य नहीं ?
हम जितनी भी सहनशीलता नहीं ?
क्यों, तुम्हारे नाम पर आसिया बीवी को जेल में वर्षों सड़ना पड़ता है ?
क्यों, तुम्हारे नाम पर तस्लीमा, अपनी मिट्टी से निर्वासित कर दी जाती है ?
क्यों, तुम्हारे नाम पर रुश्दी पर फ़तवा घोषित कर दिया जाता है ?
क्यों, धर्म की साजिशों के चलते अख़लाक को मार दिया जाता है ?
क्यों, हँसते - खेलते बेक़सूर माजिद को अपनी जिन्दगी से हाथ धोना पड़ता है ?
क्यों, कबीर आँखों की किरकिरी बनते हैं ?
क्यों, तुम्हारे दरबार में हम स्त्रियाँ नहीं आ सकतीं ?
क्यों, दलित नहीं आ सकते ?
क्यों, विधर्मी नहीं आ सकते ?
ये तुम्हारे “कण – कण में भगवान हैं”
का क्या मतलब है ?
“हम सब ईश्वर की संतान हैं”
का क्या मतलब है ?
मैं नहीं जानती इनके अर्थ,
तुम बताओ ?
बताओ तो सही ?
कोई तो बताओ इनके अर्थ ?
मैं जानती हूँ तुम नहीं बता सकोगे इनके अर्थ.
तुममें नहीं आएगी इतनी विनम्रता,
कि तुम अपनी निंदा सुन सको.
रोक सको कभी मंदिर – मस्जिद से बाहर निकलकर,
रोज़ हो रहे खून खराबे को
जो दे सको आदमी को आँख खोल कर देखने और मुँह खोलकर कहने की आज़ादी
नहीं होगा न तुमसे !
तो सुनो,
मेरा भी नाम लिख लो तुम्हारी निंदा में.
मुझे अच्छा लगता है ईशनिंदा शब्द !