उत्तर आधुनिक मुहब्बत / अमरजीत कौंके
मेरे दोस्त की महबूबा ने
कुछेक शर्तें रख कर
उसको अपनी मुहब्बत पेश है की
कहने लगी-
इस तरह की नहीं हूँ
वैसे तो मैं चाहे
मालूम नहीं पर इस उम्र में
यह दिल दीवाना कैसे
भटक गया है
बच्चे बड़े
जिम्मेदारियां भी बहुत हैं
लेकिन फिर भी
चलता-चलता समय
नयनों में कहीं
अटक गया है
कहने लगी -
चलो जैसे भी है
लेकिन तुम ने
सिर्फ तभी मुझे फोन है करना
जब मैं अपने फोन से
खुद तुम्हें मिस काल लगाऊं
छुट्टी वाले दिन तो
बिल्कुल संभव नहीं है
बातचीत अपनी
पतिदेव जी घर होते हैं
सारा दिन ही
घर के काम काज में बिताऊं
मैसेज तो बिल्कुल नहीं करना
बच्चे बड़े हैं
मैसेज बाक्स खोल हैं लेते
मोबाईल सारा खँगाल डालते
लेकिन यह बात सच मानना
तुम्हें बहुत ही मिस करती हूँ
सारा दिन मैं याद तुम्हारी
में ही बस जीती मरती हूँ
ध्यान रखना पढ़ने के बाद
सारे मेरे मैसेज तुम डिलीट कर देना
कहीं कोई भी मैसेज लिखा हुआ रह न जाए
बिना वजह ही कोई मुसीबत आ ना जाए
कहीं कुछ अगर पता चल गया
बिना बजह ही
ज़िंदगी मेरी तबाह हो जानी
जाने क्या से क्या हो जानी
मेरे दोस्त की महबूबा ने
कुछेक शर्तें रख कर उस को
अपनी मुहब्बत पेश है की...।