उन दिनों / शर्मिष्ठा पाण्डेय
उन दिनों
नानी कहती थी
अतिशय रूप सुख न लेने देगा
स्वघाती है डस लेता है खुद का चैन
यूँ तो जड़ की पहली परत तक
छील डाले गए वनबहार
के पौधे में पुनः बसंत आने तक
सर उठाने के दु:साहस सरीखी
सुनहरी बिंदियों की गोलाइयों ने
सर उठाना शुरू कर दिया था
माथे का क्षेत्रफल मापती अर्ध-गोलार्ध काली भवें
ज्यामिति के नए आयाम रचती रहीं
सुना है! जब-जब नए नियम बने
पुरखों की तानी वक्र भवों के दुरूह नियमों ने
पीढ़ी के पाठ्यक्रम से विदाई ले ली है
हर इतवार मंगल की सुबह
शाम मिर्च-लोहबान जला जला कर
नज़र उतारने वाली
बूढ़ी नज़रों ने जाने कब भांप लिया था
चौराहों वाले प्रेतों की काली नज़रों का नीलापन
जिन कागजों के पुलिंदों में
वो लपेटती रही थी न
अपनी अचूक नज़र मारक वाली
पंसारी सामग्री आग में जल-जल
उन पुलिंदों से उठते नीले धुवें
हवा में घुल कर कानों में फुसफुसाते रहे
"नज़र-गुज़र नज़र गुज़र"
आह! क्या कभी किसी ने
हवाओं की बात पर कान धरा है नहीं ना
नीले धुवें नीला नशा बनते रहे और
जब बन गए नीला ज़हर डस लिया भाग्य का चन्द्र
नानी कहती थी
चाँद में जो नीलापन है ना
वो भी उसके रूप का ही अभाग है
इसीलिए तो घटता बढ़ता है
बेचैन बेहद बेचैन है
सच कहा था उसने