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उफ़क़ के पार / रेशमा हिंगोरानी
Kavita Kosh से
ये कैसा शीश महल सा है,
मुझको घेरे हुए?
ये बेहिसाब मेरे गिर्द,
किसके चेहरे हुए?
ये अक्स,
अजनबी से अक्स ,
कब से मेरे हुए?
ये कब नकाब ओढे मैंने,
घिनौने ऐसे?
और थका हुआ सा कौन,
वहाँ,
ताकता है मौन?
कहीं मैं तो नहीं?
सफ़र सियाह,
ज़िंदगी का,
सूझे राह नहीं,
मगर मैं फिर भी,
लड़खड़ाए,
चली जाती हूँ…
न जाने किसकी ओर?
हाए! इस भूल-भुलैयाँ से निकालो कोई,
मुझे तो दूर,
बहुत दूर पहुंचना था कहीं...
1978 / 1991