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उभयचर-16 / गीत चतुर्वेदी

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बुरा भी था बहुत मैं कि चुप न रह पाता था सो भला न हो पाया किसी का वास्ते किसी के
जब भी टोकता था कि तुम ग़लत हो वे फ़ौरन वह नीतिकथा सुना देते
कि टोकने का अधिकार उसी को है जिसने कभी पाप न किया हो
इस तरह कोई टोक न पाता जो टोकता भी सो सुना न जाता इस तरह
अनवरत चलता रहा पाप का व्यवहार
मैं खोजता फिरता उस चतुर सुजान व्यापारी को जिसने बनाई होगी यह नीतिकथा
और रणनीति की तरह किसी संत के नाम पर बेच दी होगी
(यह खोजना भी तभी जायज़ जब मैंने कभी नीति की रणनीति बनाई न हो?)
मुझे यह देश बिल्कुल पसंद नहीं
और ऐसे किसी काम में मेरी साझेदारी नहीं जिससे रातोंरात मेरी पसंद का बनता जाए यह देश हो भी रहे हों ऐसे और संभव है कि मैं शामिल भी हूं
एक दिन इसे छोड़कर चला जाऊंगा ऐसा तो पता नहीं पता है यह ज़रूर मुझे छोड़ चुका है यह देश छोड़ता और हर रोज़ धीरे-धीरे तेज़तर
अगर मैं विरोधाभासों से भरा हूं तो भरा हूं
कम से कम भरा तो हूं
अपने में हूं और तुममें नहीं तो कम से कम हूं तो नहीं भी तो हूं ही