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उम्मीदों की ज़ंजीर / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
उम्मीदों की ज़ंजीरों का
बढ़ता रोज़ दबाव
डरकर साँसें छोड़ रही हैं
अब जीने का ख़्वाब
नये परिंदों की ख़ातिर अब
ऊँचे मानक तय हैं
मानक से कम उड़ पाने पर
उपहासों के भय हैं
घायल मन ले दौड़ रहे हैं
अनचाही सी दौड़ें
वापस मुड़ना भी कब संभव
कैसे रस्ता छोड़ें
छूट रहे हैं कोरे पन्ने
लेकर काला अंत
रोज़ हो रही है साँसों की
असमय बंद किताब
कहो वृक्ष बनने से पहले
पौधे क्यों मुरझाते?
अधिक धूप या पानी,
दोनों से ही वे मर जाते
हर पौधे की अपनी
सीमा, ज़रूरतें होती हैं
बिना नेह के सुविधाएँ भी
सिसक-सिसक रोती हैं
औरों से क्षमता की तुलना
भरती है अवसाद
काश कि दुनिया बंद करे
अब ये गणितीय हिसाब