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उलूखन-बंधन ( राग केदार) / तुलसीदास
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उलूखन-बंधन ( राग केदार)
(1)
हरि को ललित बदन निहारू।
निबटहिं डाँटति निठुर ज्यों लकुट करतें डारू।1।
मंजु अंजन सहित जल कन चवत लोचन चारू।
स्याम सारस मग मनहुँ ससि स्त्रवत सुधा सिंगारू।2।
सुभग उर दधि बुंद सुंदर लखि अपनपौ चारू।
मनहुँ मरकत मृदु सिखर पर लसत बसद तुषारू।3।
कान्हहू पर सतर भौंहि महरि! मनहिं बिचारू।
दास तुलसी रहति क्यों रिस निरखि नंदकुमारू।4।
(2)
लेत भरि भरि नीर कान्ह कमल नैन।
फरक अधर डर, निरखि लकुट कर, कहि न सकत कछु बैन।1।
दुसह दाँवरी छोरि, थोरी खोरि, कह कीन्हों,
चीन्हों री सुभाउ तेरो आजु लगे माई मैं न।
तुलसिदास नँद ललन ललित रिस क्यों रहति उर ऐन।2।