उसी सड़क पर / प्रत्यूष चन्द्र मिश्र
बहुत दिनों के बाद बैठा हूँ रिक्शे पर
साथ में एक मित्र हैं भाई पंकज
कमच्छा के रास्ते हम बढ़ रहे हैं
धीरे-धीरे लंका की ओर
पर अन्दर की सड़क पर कोई और ही चल रहा है
उस दिन तुम थी रिक्शे पर मेरे साथ
तुम्हारी हरी चुन्नी जा फंसी थी रिक्शे में
धीरे से निकाला था मैंने उसे
और ख़ुद फंस गया था
वह सितम्बर का महीना था
और हवा भी चल रही थी मन्द-मन्द
सड़क बिलकुल साफ़ थी
एक सुई भी नज़र आ जाए ऐसा कुछ
‘आप हिन्दी की हैं ?’
’हाँ, और आप’
’मैं ऐसे ही कुछ लिखता पढता रहता हूँ’
’दिखाइए कभी’ —’जी, बिलकुल’
कुछ इसी तरह से शुरू हुआ था सिलसिला
अख़बारों और आईने से परे की एक दुनिया
एक गली जिसमे कई गलियांँ थी
एक सदी जिसमें कई सदियाँ थी
तब ख़ूब सारी बहसें होती
ख़ूब सारे विवाद
कमी नहीं थी मित्रों और दुश्मनों की
तुमने पूरी कर दी थी सारी कमियाँ एक साथ
वह हमारा साल था
कविताओं और कहानियों का साल
नाटकों और गीतों ग़ज़लों का साल
वायदों और उम्मीदों का साल
उस साल इसी तरह हमने
एक दूसरे के दुख सहलाए थे
और आज इतने दिनों बाद उसी सड़क पर
जबकि बीत गया है एक अरसा
पता नहीं कैसा होगा तुम्हारा चेहरा
तुम्हारी आवाज़
तुम्हारे तेल से चुपड़े घने केश
क्या हम मिल पाएँगे कभी
बैठेंगे रिक्शे पर साथ-साथ
इसी शहर में इसी सड़क पर ।