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उस साल / दिनेश कुमार शुक्ल

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उस साल
मैंने उठाया एक शब्द
और आँकने चला उसे
कि मुस्कुराते जीव-सा
शब्द सीधे झाँकने लगा
मेरी ही आँखों में

कितनी ही अग्नियों में
तप कर निकला
वह शब्द
दूसरे शब्दों को
बिसूर रहा था शायद..
खोजता उन्हें मेरी आँखों के जल में

उँगली पर हीरे-सा
झलमला रहा था वह शब्द
अब आँसू की आभा से
भरा हुआ

निरर्थकता के कुंड-सी
मेरी आँखों में
देख रहा था शब्द
अपना ही खौलता प्रतिबिम्ब-
अँधेरे की प्रतिध्वनियों में
टकरा कर चूर-चूर
होते थे
अतृप्ति के अनेक अर्थ

उँगलियों में चुभता
गुखरू-सा,
बिलबिलाता कभी कीट-सा,
विस्फोटक पदार्थ-सा
थरथरा रहा था शब्द-
प्रकम्पित अनुभूति का तार-तार!

घबराकर, कि आदर से,
छोड़ दिया मैंने उसे, वहीं
जहाँ से उठाया था
लाखों साल प्राचीन
जीवन की मिट्टी में-
जहाँ गूँज रही थीं यादें
आकाश की, समुद्रों की, वनों की,
और पदचापों की

अंकुरित हो रहा था
अब शब्द-
उसकी जड़ें
घुस रही थीं विरोध-सी
जड़ता की चट्टानों को फोड़ती

कोमल-प्रकाशमय-पर्ण
इतिहास के हरे-धुंधलके में
डोलते थे मन्द-मन्द
आदिम लताओं की लय में लीन
मृत्यु के कर्दम पर
हँसता उग रहा था
एक पादप-
एक अभिव्यक्ति
सब कुछ को चीरती
सीधे अस्तित्व में धँसती
चली जाती थी

सिर्फ़ एक शब्द ने
ऐसी हलचल मचा दी
चराचर में
कि फूट पड़े अंकुर ही अंकुर
अपने आप
जाने कहाँ से बहती चली आयीं
नदियाँ
लुढ़कते चले आये मेघ
उड़ते चले आये पक्षी
भरते कल्लोल से दिगन्त को

छप्परों पर फैली
लौकी तरोई की बेलों में
खिल उठे
सफेद और वसन्ती रौशनी के फूल
मौसम के पहले ही
उस साल

उस साल
घर छोड़, मुक्ति की
अन्तहीन राहों पर
चले गये थे
कितने लोग!
उस साल
मृत्यु के ख़िलाफ
ऐसा था
ऋतुओं का वज्रनाद
कि फूलों में शब्द
और शब्दों में फूल
घुल-मिल गये किस कदर!

उस साल
शहद में
फूलों के
पराग और
भाषा का मिला-जुला स्वाद था
उत्कंठित!