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एक-सा मन / प्रज्ञा रावत

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लड़कियों से लावण्य और लोच
लड़कों से पौरुष, चपलता
बूढ़े चेहरों से ठण्डक
धीरे-धीरे छँट रही है
 
चमकीले विज्ञापनों सरीखे
एक-सी सूरत के टमाटर
सब्जी, अख़बार, बाज़ार
चेहरे... मोहरे
सब एक से

पूरब, उत्तर, दक्खिन
सब हुए जा रहे हैं पश्चिम
डार्विन क्या तुम्हारे सिद्धान्त ने
रचा था ऐसा कुछ!