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एक / रागिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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साबुन से धुले-धुले खुले केश
बिखर-बिखर जाते हैं मस्त हवाओं में
उड़-उड़ कर छाते हैं सुख पर
ग्रीवा में लिपट कभी जाते दुपट्टा-से
कभी युग्म नागों से खेल रहे बाँहों पर

परेशान बार-बार लट समेत लेती है
पुन: हवा तार-तार कर बिखेर देती है
कितने मनुहार! स्वप्न साथ-साथ उड़ते हैं
बाल खोल कितनों का मन समेत लेती है

बहुत भली लगती है ताक रही निर्निमेष
साबुन से धूले-धूले खुले केश

मैं क्या हूँ, मेरे क्या बिसात
मुनियों के बंद नयन खुलते हैं, मूँदते हैं
सागर की सर्पीली लहरों-सी
उठ-उठ का चढ़ते है, गिरते हैं

तैर-तैर मक्खन से चिकने कपोलों पर
केश गुच्छ बार-बार
होठों से सिमट-हिमट चूम-चूम उड़ जाते
मन का सागर होता देख-देख धार-धार

मंद-मंद गंध भरे कितना सुंदर-सुवेष
साबुन से धूले-धूले खुले केश