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एक अश्लील कविता / केशव

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वे आते हैं हाँफते हुए
कछुए की चाल
लौट जाते हैं
अपनी घरू पत्नियों के पास
मेरे मकान की एकमात्र खिड़की पर::पत्थर फैंकने
मैं उन्हें कुछ नहीं कहती
मुझे पता है
लौटकर फिर वेआयेंगे मेरे पासऔर मेरे स्तनों से लटक
नाटकीय ढंग से
करेंगे अपनी पत्नियों की
बेवफाई का ज़िक्र
कितने बौने हैं वे सब
मेरे माँस मेंकुछ इंच धँस कर
उनका सब कुछ पिघल जाता है
मोम की तरहतब न होते हैं वे
न अपने
सपना होने हैं एक ऐसा
जिसका उन्हें
न शुरू मालूम होता है
न अंत

वे उस अंधेरे को
बार-बार सूँघते
टटोलते हैं
जो उन्होंने बुन रखा है:: म्रेरे गिर्द
अपनी क्रुद्ध आवाज़ों से
मुझे काँच के बुत की तरह
अपने अन्दर सजाते
तोड़ते
बनाते हैं
मैने उनसे दिया है
अपना निजत्व
अपनी सार्थकता
अपने सभी गहरे अर्थ
और व्ए मुझसे लेती हैं
कुचले हुए साँप का
अहं