एक और धर्मयुद्ध / मृत्युंजय कुमार सिंह
आओ देखो,
रक्तरंजित, लोहित
पिटा हुआ आकाश
झाँकता है जिसमें
विगत की चोटों का नीलापन
कराहने का आभास
और एक ज़मीन,
जिस पर फैली है
थूकी हुई मानवता की सड़ी हुई खाद
ताकि यह उगा सके
पीले पड़े संस्कृति का दूब
जिसके मुरझाये सिरे पर
लटकता है हल्का हरा वर्तमान
सर्वोदय का एहसास
हरित-क्रांति का नारा, अन्त्योदय का विश्वास
प्रगति के इश्तहारों पर
मानव मल-मूत्र के छींटे
दीवारों पर कालिख से लिखे
कुछ साहित्यिक-असाहित्यिक फ़िकरे
नारे, निर्वाचन और न्यायालय
गीता पर हाथ मुद्दई और मुद्दालय
व्यक्ति और समुदाय की सुरक्षा की क़सम खाते हैं
समन्वय ढूंढते हैं
वादों के पहियों पर घूमते व्यक्ति
और विवादों की गद्दी पर आसीन व्यवस्था
ऐसे ही दौड़ता है
भारत के भविष्य
और योजनाओं का रथ
अपने संविधान के सारथी
धाराओं के घोड़े
और अनुसूचियों के रास के साथ।
बीमार और भूखे घोड़े
कब तक दौड़ेंगे और?
टूटती धुरी और ढहते पहियों का बोझ
कब तक खिंचेगा इनके कांधों पर?
अब अर्जुन भी चिंता नहीं करता
अपने सारथी की या घोड़ों की
निश्चिंत है वह
कि अब ज़रुरत ही नहीं
धनुष की या बाणों की,
कौन सा युद्ध?
कैसा युद्ध?
कि अब ज़रुरत ही नहीं शिखंडियों पर संधानों की।
अब मात्र किसी धृतराष्ट्र
या भीष्म की मौत ही
आधार बन जाती है युद्ध के निर्णय का
और विजयी घोषित होता है
शिखंडियों की सहानुभूति के आधार पर
एक गुमनाम 'संजय'
चुपचाप युद्ध देखना
और उसकी कथा कहना-सुनना ही
जिसकी नियति रही;
धरा रह जाता है
हर कर्ण का पराक्रम अछूता।
आज भी जारी है
कल का महाभारत, कल का कुरुक्षेत्र...
लेकिन बदल चुके हैं पात्र सब
बदल चुका है घटनाक्रम
यदि हल्की पड़ चुकी है भीम की गदा
तो बढ़ते जा रहे हैं हर रोज़
झूठ बोलने वाले युधिष्ठिर भी;
यदि अर्जुन हो गया है
आदर्श से च्युत
तो अभी भी शेष है
दुर्योधन को जीता जाना,
और इस अनिर्णीत युद्ध में
अभी भी मरा नहीं है कर्ण।