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एक तिनका दूब / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
इस उजाड़ खण्ड में
बेशक बहुत से लोग चल रहे हैं साथ-साथ
किन्तु सभी अकेले हैं
ख़ुद में गिरफ़्तार
नहीं तो यह जगह इतनी उजाड़ न होती
अगर लोग होते
उन बीजों की तरह
जो सूखी मिट्टी में पड़े रहते हैं बरसों
अपने भीतर अंकुरों को बचाये हुए
तो भी वीरान नहीं लगती ये जगह
इस कदर,
इतनी आशंका नहीं होती
भविष्य को लेकर
अगर अपने-अपने वर्तमान से
दो-चार क्षण दे सकते लोग दूसरों के लिए,
इतना विस्तृत रेगिस्तान नहीं होता यहाँ
अगर जलाशय
भाप बन कर ऊपर उड़ जाने के बजाय
धीरे-धीरे भूमिगत हो गए होते,
इस तरह क्षयग्रस्त होते-होते
धरती नहीं घुल रही होती चिन्ता में
अगर बचा लिया गया होता
एक तिनका दूब का
या विजेताओं ने
एक युळ कम जीता होता...