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एक परहेज / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
Kavita Kosh से
भोगे हुए यथार्थ
के
नाम पर
अपनी आबनूसी
बाहों को चन्दन
और
अनिन्द्य उस देह को
सर्पिणी कहूँ,
सुबह से शाम तक
लकुटिया-स्तवन
करने वाले निरीहों को
दुत्कारूँ,
और
पैसा माँगने वाली-
तोतली बोलियों को मारूँ,
इकाई के लिए
हर दहाई पर आँख निकालूँ
अस्वीकारूँ
न, न, न
यह मुझसे नहीं होना... मैं हूँ ठहराव में;
तुम्हारा कथ्य
मेरी नाप का कुर्ता नहीं-
मेरा मन भरता नहीं।