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एक बूँद / पवन चौहान
Kavita Kosh से
पत्ते पर टिकी थी मैं
ओस की बूँद बनकर
सूरज की किरणों से बनी सतरंगी
डोली हर दिल पर
मेरा निखार यौवन पर था
षर्माई मैं हल्की बयार के स्पर्श पर
चहुं ओर संगीत बज उठा
पायलों की झनकार
हर ताल पर ठुमक-ठुमक जाती
प्रकृति ने किया श्रृंगार
मैं मस्त थी
सबकी मस्ती में खोकर
चहकी थी मैं चिड़िया की चहक पर
पर मुझे क्या पता था
पल भर का है मेरा यह सफर
तेज आंधी ने मुझे उड़ाया
पटक दिया नीचेे तालाब पर
अब यहां घिरी असंख्य बूंदों के बीच
अपना अस्तित्व तलाश रही हूँ
सूरज से एक बार फिर अकेले
मिलना चाह रही हूँ