एक बूढ़ी दादी / अनुभूति गुप्ता
दरख़्त की
शुष्क शाखाओं से
बेसुध-बेबस
लटकी रहती हैं
बूढ़ी दादी,
इस उम्मीद में
कि
कोई तो एक प्रहर
वहाँ से गुजरेगा,
उनको देखकर
पसीजेगा।
हाथ बढ़ाकर
तन्हाई की कील से
नीचे उतारेगा।
आँगन के
बासी अँधेरे कोने में
गुमसुम तन्हा
अटकी रहती हैं
बूढ़ी दादी,
इस उम्मीद में
कि
कोई तो एक प्रहर
उन्हें अपने हाथों से
स्नेह की रोटी परोसेगा
आदर से पुकारेगा।
बड़े चाव से
खाना वह खायंेगी
और, सुकून भरी
मीठी नींद ले पायेंगी।
बूढ़ी दादी का मन
व्यथित था-
देखकर अपनों का दोगलापन
अपने बच्चों का सौतेलापन,
बच्चों ने
सारी संपत्ति छीनकर
सड़कों पर भटकने को
छोड़ दिया,
अपनों ने उनसे
मुँह मोड़ लिया।
हजार अटकलें आयीं
मगर...
ऐसा दिन कभी नहीं आया
वह तूफानों से जूझती रहीं
बस न खोया, न कुछ पाया।
दिन-प्रतिदिन,
नैराश्य के कुहासे से घिरती गयी।
सूख चुका था,
उनकी आँखों का पानी।
फिर उस दिन...
बगीचे में,
एक अनाथ लड़की ने
बूढ़ी दादी को
’दादी जी’ कहकर पुकारा,
बूढ़ी दादी ने भी
लड़की को प्यार से दुलारा।
एक वही सुबह...
जीवन में
उजियारा लेकर आयी थी,
बूढ़ी दादी का मन हर्षाया
चलो-
किसी ने तो ’दादी जी’ बुलाया।
कम से कम जीते जी
’दादी जी’ तो कहलायी।
बिना एक क्षण गँवाये
बूढ़ी दादी ने लड़की का हाथ
ममता से थाम लिया
पति के
स्वर्ग सिधारने के बाद
अपने बच्चों के
दुत्कारने के बाद
आखिर मंे-
बूढ़ी दादी को भी,
एक रिश्ता
अपनेपन का मिला,
जिसने सूनेपन की
उधड़ी चादर को
अधिकारों से सिला।