भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक श्रद्धांजलि / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
हमारे सिर स्वत: ही झुक गए थे
किसी अनजाने भार से
हमने प्रतीक्षा की आनेवाली भोर की
और रात को गुजर जाने दिया
अपने कंधों पर से, धीरे-धीरे
सुबह की धूप में नम्रता थी
और बादलों को लोग
छाते की तरह महसूस कर रहे थे।
सभी को एक साथ नंगे पांव
आगे बढ़ते देखकर
रो पड़े थे बच्चे
और उनके दुख को भुलाने के लिए
अनेक संवेदनशील चेहरे आगे आये
लेकिन तब तक उनकी प्रार्थना
रोष में बदल चुकी थी
जिसमें समय आग की तरह जल रहा था
हमें विश्वास नहीं था
हमने कुछ भी खोया है
फिर भी सुरक्षित नहीं थे हम
बच्चे असमर्थ थे, इस काल चक्र को समझने में।