एक सुनहरी फर्न / मनीषा कुलश्रेष्ठ
कभी-कभी
तुम्हारी बगल में लेटे हुए
अनायास ही मैं
अपने ही में
अपने-आप से
न जाने कैसे बाहर निकल आती हूं
यह अपने-आप से बाहर निकल आना
घटता है
किसी अद्भुत की तरह
भीतर-बाहर
रहस्य के पारदर्शी धरातल से
आर-पार होता हुआ
बाहर आकर खोजती हूं मैं
एक मनचीन्हा एकान्त
वर्षों से पानी में डूबी एक चट्टान
चट्टान के भीतर एक जीवाश्म टटोलती हूं
कोई और फिसलन से भरी किसी सीढ़ी का
अंतिम छोर पहुंचता हो जो
चेतना की किसी सुरंग से होकर
अवचेतन की ओर
निकल आती हूं स्वर्ग से जंगलों की ओर
तोड़ लेती हूं,
एक सुनहरी फर्न
निर्वसित हो देह के ठण्डे ज्वालामुखी से निकली
यथार्थ की चमकीली स्फटिक चट्टानों पर लेटी
अपनी अनावृत आत्मा पर फिराती हूं
यह सपनीली-सुनहरी फर्न
वहां से उठकर हतप्रभ लौटी हूं
चुपचाप आ लेटती हूं फिर से
बगल में तुम्हारी
नींद में भी तुम बेचैन हो
एक असुरक्षा डरा रही है
तुम्हें मेरे यायावर मन की!