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ऐसी क्या मजबूरी / नईम
Kavita Kosh से
ऐसी क्या मज़बूरी-
लिखने के लिए लिखूँ?
भीतर से असहज
पर बाहर से सहज दिखूँ।
ऐसी क्या।
कैसी अब खैर-खबर, कैसी कुशल-मंगल?
बस्ती में घुस आए आदिम वहशी जंगल।
छोड़कर किनारों को
धारा जब बहने लगे
कैसे मुमकिन हैमैं पहले-सा रहूँ टिकूँ?
कुब्जा, कौटिल्यों से कैसे रिश्ते-नाते?
अपनी ही चौखट से फूटे अपने माथे।
फूहड़ बटखरे और
गिरे हुए भावों पर
क्यूँ कर बाज़ार चढूँ,
किस कारण भला बिकूँ?
चिथड़े-चिथड़े धरती
दिरक गया आसमान,
चीखों, चिल्लाहटों भरे
मेरे चुगद कान;
घर-आँगन
सहमे-से
चौपाले असुरक्षित
मेरे अंतर्यामी! आज्ञा दो
कहाँ रुकूँ?
घर-आँगन सहमे-से।