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ऐसे या वैसे / दिनेश कुमार शुक्ल

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कुछ आत्मपीड़न में जा गिरते हैं
और कुछ घुस जाते हैं परपीड़न में
कुछ वंचना में जा बसते हैं, कुछ रमते विश्वास में
कुछ भागते हैं जीवन की छाया तक से
और कुछ जीवन के आस-पास
काटते हैं चक्कर किनारे-किनारे ही
फिर भी मॅंझधार में डूबते देखे गये हर बार

कुछ आकाश में करते हैं वास
और कुछ अपने संकोच में
सिकुड़ते-सिकुड़ते
ख़ुद में घुलते चले जाते हैं
और जिस ज़मीन पर खड़े होते हैं वे
वो ज़मीन भी सिकुड़ते-सिकुड़ते
कल्पना में विलीन हो जाती है

कुछ लोग विस्तार में ही पाते हैं निस्तार
और वे फैलते-फैलते अपने फैलाव में बिला जाते हैं,
स्मृतियाँ कल्पनाओं का ही
प्रतिबिम्ब हैं काल के दर्पण में,
कुछ अमूर्तन में अन्तर्धान हो जाते हैं
और कुछ का लोप हो जाता है
अभिव्यक्ति के अतिरेक में,

कुछ लोग फैलाते हैं हाथ
और उनकी मुट्ठी में क़ैद हो जाता है
त्रिलोक का वैभव
और कुछ की हथेलियाँ फैली की फैली रह जाती हैं
अन्त तो सभी का ऐसा ही होता है

इस कई-कई पहलू वाले
नज़ारे में
आँखें भी दिखाती हैं अपना कमाल
हरे को लाल और लाल को पीला करतीं
सुबह को शाम और शाम को सावन में तब्दील करतीं

मगर इस सबसे हटकर
इस सबके बावजूद
कभी अनुभवगम्य कभी अनुभव से परे
इतना अधिक इतना कुछ इतनी बार
आना चाहता है हमारे पास
कि कहने को शब्द क्या, आकार क्या,
इशारे, मुद्राएँ, इंगिति, छाया,
या चेहरे पर आने वाली
एक सलवट तक नहीं होती हमारे पास
जो आभास भी दे सकती
इतने घनीभूत अस्तित्व का,
दरअसल
कहीं कुछ है ही नहीं
जहाँ ख़ालीपन हो,
जहाँ पहले से ही कुछ-न-कुछ मौजूद न हो

हम एक सघनता में
तैरते रहते हैं
जैसे धूल के गुबार पर कभी-कभी
दिख जाती है अपनी ही छाया
ठीक उसी तरह
हम ख़ुद को ख़ुदी के तूफ़ान में
देखते हैं
भॉंति-भॉंति की छायाओं में तब्दील होते
पता नहीं किस चीज़ का किस धरातल पर
परावर्तन है ये सारी काइनात !