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ऐ उच्छृंखल / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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होता अधीर नग-श्मशान
छिपता भय से रवि आसमान!
उठता झट खौल समुद्र घोर
रुकता झंझानिल का झकोर!!

हो जाती सृष्टि समस्त क्षुब्ध!
जब तू तरेरता आँख क्रुद्ध!!

मुँह ढाँक भागता लघु-विषाद
लुकता खूनी पागल प्रमाद!
भय भीत खींचता दीर्घ साँस
करती विभीषिका अट्टहास!!

चू पड़ते फल-से व्योम-फूल!
जब तमक तानता तू त्रिशूल!!

प्रतिहिंसा पीकर लहू लाल
उन्माद-नृत्य करती कराल!

यम त्राहि-त्राहि करता उदास!
हँसता खिल-खिल भीषण विनाश!!

ढीली पड़ जाती शत्रु-साँस!
जब तू दिखलाता रणोल्लास!!

शंकर का होता भग्न ध्यान
हिलता थर-थर-थर आसमान!
फटता पावक-पर्वत प्रचंड
फुफकार छोड़ती गति उदंड!!

मरता पापी पाखंडवाद।
जब तू करता हुंकार-नाद!!

तू भीम भयानक आशुतोष
तू धूमकेतु तू बज्र-घोष!
तू प्रलय-कांड तू चिता-ज्वाल
भू-कंप बवंडर तू विशाल!!

विषधर कराल तू काल-हास!
ऐ उच्छृंखल! तू सर्वनाश!!