भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ओळूं नै अवरेखतां (2) / चंद्रप्रकाश देवल
Kavita Kosh से
म्हनै म्हारी पीड़ अठी-उठी सूं हेर
चुग परौ होळै सीक भेळौ कर देवै।
म्हैं म्हारौ बिखरणौ पांतरग्यौ हूं। आ ई म्हारै चेतै कोनी के किण विध अर कठै-कठै बख लागतां ई म्हैं बिखर जाया करतौ। म्हनै बिखरण सूं काईं हाथै आवतौ, बिसरग्यौ हूं। कित्ती ताळ म्हैं अण-बिखर्यां रैय जावतौ। आज उणरौ कूंतौ करतां हेंफ आवै। तो ई ढाण पड़्योड़ौ जीव है के हाल ई बिखर-बिखर जावै। बिखरौ, छौ। पण इणरौ कांई जतन करूं के जीव म्हारौ बीज नीं बण जावै।
आज ओळूं रै आं डोढै-बांकै ऊमरां
कुण है म्हारी पीड़ टाळ जिकौ म्हनै बीज देवै।