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ओस की बूंदें / ऋचा दीपक कर्पे
Kavita Kosh से
सर्दियों की गुलाबी सुबह
धुंध की शाल लपेटे चलते हुए
मैंने मौन वृक्षों की आहटें सुनी
मुझे लगा चुपके-से कुछ कहा तुमने
एक-दूसरे के करीब बैठे
ठिठुरते पंछियों की ओर देख
मुझे याद आ गए वो जादुई पल
मैंने महसूस की तुम्हारी सांसों की खुशबू
अधखिले अलसाए-से फूल
गुनगुनाते रहे अपनी ही धुन में
पता नहीं मुझे ऐसा लगा
जैसे शायद पूछ रहे थे पता तुम्हारा...
और अचानक ही
ढुलक गई तुम्हारी सैकड़ों यादें
मेरे नेत्र पल्लवों से
ओस की बूंदें बनकर...