भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
और 'मैं' / अमृता भारती
Kavita Kosh से
देह
एक कामना है अर्पण की
मन
टूटकर गिरे फूलों का ढेर
हृदय
एक प्रार्थना
प्रकाश और छाया की
और 'मैं'
एक ऐसा 'एकान्त'
जो इन सबसे गुज़र कर भी
अक्षुण्ण बना रहता है
सदा एक
सिर्फ़ एक ।