कइसन हे बदलाव / मणिशंकर प्रसाद
सोच-समझ के पढ़वा जब
अदमी के मन के भाव,
लगतो पता तभी दुनिया में
केतना हे दुर्भाव ।
केतना रिश्ता जुटल आउ
केतना नित टूट रहल हे ?
केतना बनल बेगाना
केतना अप्पन छूट रहल हे ?
सबसे बड़ा मरम के रिश्ता
पइसा साथ लगाव ।
के पइता सम्मान आउ
केकरा से प्रीत लगाना हे ?
अपना से रिश्ता निभबे के
ई तो चलन पुराना हे;
अब तो मइया-बाबू से भी
घर मे होत दुराव ।
नफरत आउ मोहब्बत के
अब माने बदल रहल हे,
अब अप्पन खून बँटल हे;
गोत्र एक, परिवार एक
पर तइयों हे बिलगाव ।
जोड़े के अब बात कहाँ हे
तोड़े के गलबात,
केकरा कहाँ मदद करतो के
अब तो भीतरघात;
बीत गेलो दिन अपनापन के
खतम होलो सदभाव ।
कहाँ गेलो रिश्ता के डोरी
कहाँ गेलो निज भाव ?
ऊँच-नीच, छोटकन-बड़कन के
कहाँ गेलो समभाव ?
कइसन हवा बहल बँटवे के
कइसन ई बदलाव ?