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कई बार / हरीश बी० शर्मा
Kavita Kosh से
मुझे कई बार उतरना पड़ा है
सैलून की सीट से
थर्ड की टिकट-खिड़की पर
नंबर आते-आते
कई बार धकेला गया हूँ मैं
पीड़ा हर बार हुई
मलहम लगाकर छुट्टी की
कभी कुरेदा ही नहीं
नासूर बनने नहीं दिए ऐसे घाव
क्योंकि माना गया जिसे नियति
उससे उलाहना क्या
फिर ऐसे लोगों की
स्टोरी भी तो नहीं बनती