कच्छ का भूकम्प / उषा उपाध्याय
एक खेल रचा था
स्वयं काल ने
ताश के पत्तों की गड्डी खोल कर
तरह-तरह से सजाई गई
मखमली चद्दर पर,
कहीं दो मंज़िल में-
कहीं दस मंज़िल में-
अपने कुशल हाथों से
बडी शान से उसने
न जाने क्या-क्या सजाया था !
बीच-बीच में धागे की लकीर जैसी
सजाई थी छोटी छोटी गलियाँ
और इन गलियों में
परिंदों जैसी चहचहाती
रख दी थीं कुछ लडकियाँ
उनकी आँखों में था सारा आकाश
उनके पैर में थी लहरो की थिरकन
और थी जीवन की नमी
उनके हाथों में
खरगोश की मासूमियत
और मुलायमी से भरे
प्यारे से बच्चे भी तो
छोड़े गए थे हर आँगन में
और इन्हीं गलियों में घूमता हुआ
आदमी भी तो बनाया था काल ने !
स्वयं काल से भी पंजा
लड़ाता है जो
लेकिन,
यही तो ग़लती हुई काल से
पर ग़लती का पता चलते ही
उसने कसकर पंजा लड़ाया आदमी से,
मगर हुआ नहीं वह टस से मस;
काल ने सुख भेजा आदमी के लिए
पर नहीं मरा वह
चिंघाड़ लगाकर उसने भेजी आँधी
पर नहीं मरा वह
मारे क्रोध के हाथ पटककर उसने
उँड़ेल दिया समुद्र सारा उस पर
फिर भी नहीं मरा वह
बल्कि
सीना तान कर खड़ा हो गया
कुछ दिन तक
स्वंय काल के
सम्मुख भी वह
अड़ा रहा निज बल से ।
आख़िरकार काल ने छल से
पैर तले की चद्दर खींची
पलक झपकते
सजे–सजाए महल गली घर
बच्चे-बूढ़े, दूल्हा-दुल्हिन, औरत-मर्द
सब ध्वस्त हुए
सब बदल गए पत्थर में....
खेल था
ख़त्म हुआ सब एक ही पल में ।
स्वंय काल का रचा-रचाया
सब कुछ ही था,
लेकिन फिर भी-
रह-रह कर क्यों
उठती है एक चीख़ हृदय से
काल की
कैसी यह छलना ?
काल की ऐसी क्यों छलना ?