कथा कहें / सुधांशु उपाध्याय
वाल्मीकि कुछ नया कहें
नए दौर की कथा कहें
नए जनकपुर, नई अयोध्या
सीताएँ पर अभी वही हैं
इनकी भी कुछ व्यथा कहें
कहा आपने बहुत खोलकर
फिर भी कथा अधूरी
औरत के माने अब दो ही
देह और मजबूरी
बनने को बन गईं बहुत
अब टूटें ऐसी प्रथा कहें
हर विचार से औरत गायब
नारी के हैं शब्द लापता
प्रिय को प्रिय लिखना ही उसकी
सबसे बड़ी ख़ता
स्त्री बस इतना विमर्श है
और कहें या तथा कहें
अग्निकुण्ड है उसकी ख़ातिर
हर दिन देती इम्तहान है
वह जीवित है कैसे मानें
किसी और के हाथ प्राण हैं
दूध बनी वह दही बनी वह
किसने उसको मथा कहें
जनक दुलारी भूखी सोती
भूमिसुता को धरा नहीं है
उसकी अपनी नींद नहीं
सपना कोई हरा नहीं है
फिर से लिखें नई रामायण
इसे न लें अन्यथा कहें
हर युग की अपनी रामायण
हर युग में निर्वासित सीता
उस युग में मिथिलेश कुमारी
इस युग में शबनम संगीता
यही कथा सीतायन है
सत्य कहें या वृथा कहें