भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कपास / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओ सफ़ेद बुर्राक़ रेशे
क्या चाँद की माँ ने
चुना तुझे हवाओं से या
धरती पर पड़े ठिठुर रहे
नंग धड़ंग शिशु और
उसकी माँ ने?

या धरती की सर्द पुकार से
सिकुड़ गया था चाँद?
क्या गिर गया था उसके बदन से
उसका एक झिंगोला?
जिसने टिका दिया था
डोडे पर
बर्फ-सा एक गोला
या शायद
चरखा कातती उस बुढ़िया ने ही
सिखाया हो रेशों का खेल
आकर कर गई हो उसकी माँ से मेल

धरती को दे गई हो एक सौगात
देवताओं से छीन कर
बीज कपास

मुमकिन है उसके बाद ही
इन्सान ने सोचा हो
नाज़ुक फूल में लिपट जाना
देह में गर्मी पा,
चाँद को झिंगोला पहनाना
गहन अंधकार में
धरती को चांदी पहनाना
बाती बन सूरज को
आगोश में ले आना
फिर
तेरे रेशे बिखरा हवाओं में
कफ़न की औक़ात बढ़ाना
तेरी कोमल प्रकृति को
इतना कठोर बनाना

ऐ हवाओं के साथी
मैं बेरंग उन सबसा कहाँ हूँ
मैं अब मैं से निकल रहा हूँ
तुझे पकड़ने की धुन में धुन रहा हूँ
कि अब तू अता कर दे मुझे
अपनी फ़ितरत
जब चाहूँ रंग जाऊँ
हल्का हो उड़ जाऊँ
उसके देश कि
अब तू मुझे
कभी-कभी
मेरे जैसा लगता है!