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कभी भी जब / अम्बिका दत्त
Kavita Kosh से
कभी भी जब
आत्महत्या कर लेता है
वह कमजोर लड़का
या फिर सुबकती है/नादान लड़की
शाम के वक्त/देहरी पर बैठकर
रूक गया है/सारा का सारा
बहता हुआ-लावे सा मौसम
साफ नजर आती है, उसके बीच
-तैरती हुई
सन्नाटे की निर्वस्त्र देह
तब जोर से बजता है
खतरे का सायरन
लगातार झनझनाने लगती है
बारीक घण्टियों की आवाज
जिन्दा रहनें की मजबूर शर्तों के पास से
गुजरती है कविता
थरथराती जमीन पर
करवटें बदलता है
सिर्फ एक कटा हुआ हाथ
अगुंलियों के टपोरों से
हौले से,
छूता हूं मैं उसे।