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कल तलक / विमल राजस्थानी

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कल तलक गाँव था
प्रेम था, चाव था

हर बसर आज तो इक शहर हो गया
आदमी आदमी को ही खाने लगा
हर बसर ही सरापा हो गया

अब न चौपाल की ही वे गप्पें रहीं
भाईचारा मिटा, बुझ गयी रौशनी
एक ऐसा अँधेरा है बरपा यहाँ
कोयला बन गयी कामिनी चाँदनी

अब न बरगद ही, जो गाँव को छाँव दे
ठाँव उसका कँटीली डगर हो गया