कविता / अखिलेश श्रीवास्तव
एक वक्रोक्ति ने टेढ़ी कर दी है
सत्ता की जुबान
एक बिम्ब ने नंगा कर दिया है राजा को!
ढ़ोल नगाड़ो और चाक चौबंद सैनिकों के आगे
दर्प से चलते राजदंड़ को
एक हलन्त ने
लंगड़ी मार कर घूल घूसरित कर दिया है!
अलंकार उतार कर फेक दिये गये है
कसे गये है वीणा के तार
तांड़व की तैयारी में
ये जो दूध की बारिश हुई है सड़कों पर
वो राग भैरवी के कारण है
मल्हार तो
पसीना निकाल लेता है
और एक बूंद तक नहीं देता पानी की!
शिल्प ने राजनीति के चेहरे पर
कालिख पोत दी है
सामंती आंखो में खून उतरआया है
उससे बहते विकास के परनाले
दरिद्रता का कीचड़
पैदा कर रहे है
सड़कों पर रपट कर गिर रहे है,
छटपटा रहेहै,
मुक्ति-मुक्ति चिल्ला रहे हैअन्नदाता
एक सूखे श़जर के नीचे
अन्नपूर्णा पांच मीटर लंबा
कपास बट रही है!
कई चौधरियों की हड्डियाँ
गड़ रही है चौराहों पर
खूंटा बनकर लार टपकाते
कूकूर भोज समझ कर
इकट्ठा हो रहे है।
एक रूपक ने
रामराज्य के सदरियों को धोबी कहा हैं
बहुत दिनों के बाद एक कविता नक्कारखानें
में तूती बन गई है!